31-12-92  ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन

सफलता प्राप्त करने का साधन-सब-कुछ सफल करो

अपने सर्व खज़ानों को सफल करने की लगन में मग्न रहने वाले बच्चों प्रति नव-जीवन दाता बापदादा बोले -

आज नव-जीवन देने वाले रचता बाप अपनी नव-जीवन बनाने वाले बच्चों को देख रहे हैं। यह नव-जीवन अर्थात् श्रेष्ठ ब्राह्मण-जीवन है ही नव-युग की रचना करने के लिए। तो हर ब्राह्मण आत्मा की नई जीवन नव-युग लाने के लिए ही है जिसमें सब नया ही नया है। प्रकृति भी सतोप्रधान अर्थात् नई है।

दुनिया के हिसाब से नया वर्ष मनाते हैं-नये वर्ष की बधाइयां देते हैं वा एक-दो को नये वर्ष की निशानी गिफ्ट भी देते हैं। लेकिन बाप और आप नव-युग की मुबारक देते हो। सर्व आत्माओं को खुशखबरी सुनाते हो कि अब नव-युग अर्थात् गोल्डन दुनिया ‘सत-युग’ वा ‘स्वर्ग’ आया कि आया! यही सेवा करते हो ना। यही खुशखबरी सुनाते हो ना। नये युग की गोल्डन गिफ्ट भी देते हो। क्या गिफ्ट देते हो? जन्म-जन्म के अनेक जन्मों के लिए विश्व का राज्य-भाग्य। इस गोल्डन गिफ्ट में सर्व अनेक गिफ्टस आ ही जाती हैं। अगर आज की दुनिया में कोई कितनी भी बड़ी ते बड़ी वा बढ़िया ते बढ़िया गिफ्ट दे, तो भी क्या देंगे? अगर कोई किसको आजकल का ताज वा तख्त भी दे दे, वह भी आपकी सतोप्रधान गोल्डन गिफ्ट के आगे क्या है? बड़ी बात है क्या?

नव-जीवन रचता बाप ने आप सभी बच्चों को यह अमूल्य अविनाशी गिफ्ट दे दी है। अधिकारी बन गये हो ना। ब्राह्मण आत्मायें सदा अखुट निश्चय की फलक से क्या कहते कि यह विश्व का राज्य-भाग्य तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है! इतनी फलक है ना। या कभी कम हो जाती, कभी ज्यादा हो जाती? ‘‘निश्चय है और निश्चित है’’-इस अधिकार की भावी को कोई टाल नहीं सकता। निश्चयबुद्धि आत्माओं के लिए यह निश्चित भावी है। निश्चित है ना। या कुछ चिन्ता है-पता नहीं, मिलेगा या नहीं? कभी संकल्प आता है? अगर ब्राह्मण हैं तो निश्चित है-ब्राह्मण सो फरिश्ता, फरिश्ता सो देवता। पक्का निश्चय है ना। कि थोड़ी हलचल होती है? अचल, अटल है? तो ऐसी गोल्डन गिफ्ट बाप ने आपको दी और आप क्या करेंगे? औरों को देंगे। अल्पकाल की गिफ्ट है तो अल्पकाल समाप्त होने पर गिफ्ट भी समाप्त हो जाती है। लेकिन यह अविनाशी गिफ्ट हर जन्म आपके साथ रहेगी।

वास्तविक मनाना तो नव-युग का ही मनाना है। लेकिन इस संगमयुग में हर दिन ही मनाने का है, हर दिन मौज में रहने का है, हर दिन खुशी के झूले में झूलने का है वा खुशी में नाचने का है, अविनाशी गीत गाने का है। इसलिए ब्राह्मण जीवन का हर दिन मनाते रहते हो। हर दिन ब्राह्मणों के लिए उत्साह-उमंग बढ़ाने वाला उत्सव है। इसलिए यादगार रूप में भी भारत में अनेक उत्सव मनाते रहते हैं। यह प्रसिद्ध है कि भारत में साल के सभी दिन मनाने के हैं। और कहाँ भी इतने उत्सव नहीं होते जितने भारत में होते हैं। तो यह आप ब्राह्मणों के हर दिन मनाने का यादगार बना हुआ है। इसलिए नये वर्ष का दिन भी मना रहे हो। नया वर्ष मनाने के लिए आये हो। तो सिर्फ एक दिन मनायेंगे? पहली तारीख खत्म होगी तो मनाना भी खत्म हो जायेगा?

आप श्रेष्ठ आत्माओं का नया जन्म अर्थात् इस ब्राह्मण जन्म की श्रेष्ठ राशि है-हर दिन मनाना, हर दिन उत्सव। आपकी जन्म-पत्री में लिखा हुआ है कि हर दिन सदा श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होना है। आप ब्राह्मणों की श्रेष्ठ राशि है ही सदा उड़ती कला की। ऐसे नहीं कि दो दिन बहुत अच्छे और फिर दो दिन के बाद थोड़ा फर्क होगा। मंगल अच्छा रहेगा, गुरूवार उससे अच्छा रहेगा, शुक्रवार फिर विघ्न आयेगा-ऐसी राशि आपकी है क्या? जो हो रहा है वह भी अच्छा और जो होने वाला है वह और अच्छा! इसको कहते हैं ब्राह्मणों के उड़ती कला की राशि। ब्राह्मण जीवन की राशि बदल गई। क्योंकि नया जन्म हुआ ना। तो इस वर्ष हर रोज अपनी श्रेष्ठ राशि देख प्रैक्टिकल में लाना।

दुनिया के हिसाब से यह नया वर्ष है औप आप ब्राह्मणों के हिसाब से विशेष अव्यक्त वर्ष मना रहे हो। नया वर्ष अर्थात् अव्यक्त वर्ष का आरम्भ कर रहे हो। तो इस नये वर्ष का वा अव्यक्त वर्ष का विशेष स्लोगन सदा यही याद रखना कि सदा सफलता का विशेष साधन है-हर सेकेण्ड को, हर श्वांस को, हर खज़ाने को सफल करना। सफल करना ही सफलता का आधार है। किसी भी प्रकार की सफलता-चाहे संकल्प में, बोल में, कर्म में, सम्बन्ध-सम्पर्क में, सर्व प्रकार की सफलता अनुभव करने चाहते हो तो सफल करते जाओ, व्यर्थ नहीं जाये। चाहे स्व के प्रति सफल करो, चाहे और आत्माओं के प्रति सफल करो। तो आटोमेटिकली सफलता की खुशी की अनुभूति करते रहेंगे। क्योंकि सफल करना अर्थात् वर्तमान के लिए सफलता और भविष्य के लिए जमा करना है।

जितना इस जीवन में ‘समय’ सफल करते हो, तो समय की सफलता के फलस्वरूप राज्य-भाग्य का फुल (Full) समय राज्य-अधिकारी बनते हो। हर श्वांस सफल करते हो, इसके फलस्वरूप अनेक जन्म सदा स्वस्थ रहते हो। कभी चलते-चलते श्वांस बन्द नहीं होगा, हार्ट फेल नहीं होगा। एक गुणा का हजार गुणा सफलता का अधिकार प्राप्त करते हो। इसी प्रकार से सर्व खज़ाने सफल करते रहते हो। इसमें भी विशेष ज्ञान का खज़ाना सफल करते हो। ज्ञान अर्थात् समझ। इसके फलस्वरूप ऐसे समझदार बनते हो जहाँ भविष्य में अनेक वजीरों की राय नहीं लेनी पड़ती, स्वयं ही समझदार बन राज्य-भाग्य चलाते हो। दूसरा खज़ाना है-सर्व शक्तियों का खज़ाना। जितना शक्तियों के खज़ाने को कार्य में लगाते हो, सफल करते हो उतना आपके भविष्य राज्य में कोई शक्ति की कमी नहीं होती। सर्व शक्तियाँ स्वत: ही अखण्ड, अटल, निर्विघ्न कार्य की सफलता का अनुभव कराती हैं। कोई शक्ति की कमी नहीं। धर्म-सत्ता और राज्य-सत्ता - दोनों ही साथ-साथ रहती हैं। तीसरा है-सर्व गुणों का खज़ाना। इसके फलस्वरूप ऐसे गुणमूर्त बनते हो जो आज लास्ट समय में भी आपके जड़ चित्र का गायन ‘सर्व गुण सम्पन्न देवता’ के रूप में हो रहा है। ऐसे हर एक खज़ाने की सफलता के फलस्वरूप का मनन करो। समझा? आपस में इस पर रूहरिहान करना। तो इस अव्यक्त वर्ष में सफल करना और सफलता का अनुभव करते रहना।

यह अव्यक्त वर्ष विशेष ब्रह्मा बाप के स्नेह में मना रहे हो। तो स्नेह की निशानी है-जो स्नेही को प्रिय वह स्नेह करने वाले को भी प्रिय हो। तो ब्रह्मा बाप का स्नेह किससे रहा? मुरली से। सबसे ज्यादा प्यार मुरली से रहा ना तब तो मुरलीधर बना। भविष्य में भी इसलिए मुरलीधर बना। मुरली से प्यार रहा तो भविष्य श्रीकृष्ण रूप में भी ‘मुरली’ निशानी दिखाते हैं। तो जिससे बाप का प्यार रहा उससे प्यार रहना-यह है प्यार की निशानी। सिर्फ कहने वाले नहीं-ब्रह्मा बाप बहुत प्यारा था भी और है भी। लेकिन निशानी? जिससे ब्रह्मा बाप का प्यार रहा, अब भी है-उससे प्यार सदा दिखाई दे। इसको कहेंगे ब्रह्मा बाप के प्यारे। नहीं तो कहेंगे नम्बरवार प्यारे। नम्बरवन नहीं कहेंगे, नम्बरवार कहेंगे। अव्यक्त वर्ष का लक्ष्य है-बाप के प्यार की निशानियां प्रैक्टिकल में दिखाना। यही मनाना है। जिसको दूसरे शब्दों में कहते हो बाप समान बनना।

जो भी कर्म करो, विशेष अन्डरलाइन करो कि कर्म के पहले, बोल के पहले, संकल्प के पहले चेक करो कि यह ब्रह्मा बाप समान है, यह प्यार की निशानी है? फिर संकल्प को स्वरूप में लाओ, बोल को मुख से बोलो, कर्म को कर्मेन्द्रियों से करो। पहले चेक करो, फिर प्रैक्टिकल करो। ऐसे नहीं कि सोचा तो नहीं था लेकिन हो गया। नहीं। ब्रह्मा बाप की विशेषता विशेष यही है-जो सोचा वह किया, जो कहा वह किया। चाहे नया ज्ञान होने के कारण अपोजिशन कितनी भी रही लेकिन अपने स्वमान की स्मृति से, बाप के साथ की समर्थी से और दृढ़ता, निश्चय के शस्त्र से, शक्ति से अपनी पोजिशन की सीट पर सदा अचल-अटल रहे। तो जहाँ पोजिशन है वहाँ अपोजिशन क्या करेगी। अपोजिशन, पोजिशन को दृढ़ बनाती है। हिलाती नहीं, और दृढ़ बनाती है। जिसका प्रैक्टिकल विजयी बनने का सबूत स्वयं आप हो और साथ-साथ चारों ओर की सेवा का सबूत है। जो पहले कहते थे कि यह धमाल करने वाले हैं, वे अब कहते हैं-कमाल करके दिखाई है! तो यह कैसे हुआ? अपोजिशन को श्रेष्ठ पोजिशन से समाप्त कर दिया।

तो अब इस वर्ष में क्या करेंगे? जैसे ब्रह्मा बाप ने निश्चय के आधार पर, रूहानी नशे के आधार पर निश्चित भावी के ज्ञाता बन सेकेण्ड में सब सफल कर दिया; अपने लिए नहीं रखा, सफल किया। जिसका प्रत्यक्ष सबूत देखा कि अन्तिम दिन तक तन से पत्र-व्यवहार द्वारा सेवा की, मुख से महावाक्य उच्चारण किये। अन्तिम दिवस भी समय, संकल्प, शरीर को सफल किया। तो स्नेह की निशानी है-सफल करना। सफल करने का अर्थ ही है-श्रेष्ठ तरफ लगाना। तो जब सफलता का लक्ष्य रखेंगे तो व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जायेगा। जैसे-रोशनी से अंधकार स्वत: ही खत्म हो जाता है। अगर यही सोचते रहो कि अंधकार को निकालो........-तो टाइम भी वेस्ट, मेहनत भी वेस्ट। ऐसी मेहनत नहीं करो। आज क्रोध आ गया, आज लोभ आ गया, आज व्यर्थ सुन लिया, बोल दिया, आज व्यर्थ हो गया-इसको सोचते-सोचते मेहनत करते दिलशिकस्त हो जायेंगे। लेकिन ‘‘सफल करना है’’-इस लक्ष्य से व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जायेगा। यह सफल का लक्ष्य रखना मानो रोशनी करना है। तो अंधकार स्वत: ही खत्म हो जायेगा। समझा, अव्यक्त वर्ष में क्या करना है? बापदादा भी देखेंगे कि नम्बरवन प्यारे बनते हैं या नम्बरवार प्यारे बनते हैं। सभी नम्बरवन बनेंगे? डबल विदेशी क्या बनेंगे? नम्बरवन बनेंगे? ‘नम्बरवन’ कहना बहुत सहज है! लेकिन लक्ष्य दृढ़ है तो लक्षण अवश्य आते हैं। लक्ष्य लक्षण को खींचता है। अब आपस में प्लैन बनाना, सोचना। बापदादा खुश हैं। अगर सब नम्बरवन बन जायें तो बहुत खुश हैं। फर्स्ट डिवीजन तो लम्बा-चौड़ा है, बन सकते हो। फर्स्ट डिवीजन में सब फर्स्ट होते हैं। तो नये वर्ष की यह मुबारक हो कि सभी नम्बरवन बनेंगे।

व्यर्थ पर विन करेंगे तो वन आयेंगे। व्यर्थ पर विन नहीं करेंगे तो वन नहीं बनेंगे। अभी भी व्यर्थ का खाता है-किसका संकल्प में, किसका बोल में, किसका सम्बन्ध-सम्पर्क में। अभी पूरा खाता खत्म नहीं हुआ है। इसलिए कभी-कभी निकल आता है। लेकिन लक्ष्य अपनी मंजिल को अवश्य प्राप्त कराता है। व्यर्थ को स्टॉप कहा और स्टॉप हो जाए। जब स्टॉप करने की शक्ति आयेगी तो जो पुराने खाते का स्टॉक है वह खत्म हो जायेगा। इतनी शक्ति हो। परमात्म-सिद्धि है। रिद्धि-सिद्धि वाले अल्पकाल का चमत्कार दिखाते हैं और आप परमात्म-सिद्धि वाले विधि द्वारा सिद्धि को प्राप्त करने वाले हो। परमात्म-सिद्धि क्या नहीं कर सकती! ‘स्टॉप’ सोचा और स्टॉप हुआ। इतनी शक्ति है? या स्टॉप कहने के बाद भी एक-दो दिन भी लग जाते तो एक घण्टा, 10 घण्टा भी लग जाता है? स्टॉप तो स्टॉप। तो यही निशानी बाप को देनी है। समझा?

सेवा की सफलता वा प्रत्यक्षता तो ड्रामा अनुसार बढ़ती जायेगी। बढ़ रही है ना अभी। पहले आप निमन्त्रण् देते थे, अभी वे आपको निमन्त्रण देते हैं। तो सेवा के सफलता की प्रत्यक्षता हो रही है ना। आप लोगों को कोई स्टेज मिलने की वा डिग्री मिलने की आव-श्यकता नहीं है, लेकिन यह सेवा की प्रत्यक्षता है। भगवान की डिग्री के आगे यह डिग्री क्या है। (उदयपुर विश्वविद्यालय ने दादी जी को मानद् डॉक्टरेट की डिग्री दी है) लेकिन यह भी प्रत्यक्षता का साधन है। साधन द्वारा सेवा की प्रत्यक्षता हो रही है। बनी बनाई स्टेज मिलनी ही है। वह भी दिन आना ही है जो यह धर्मनेतायें भी आपको आमन्त्रित करके चीफ गेस्ट आपको ही बनायेंगे। अभी थोड़ा बाहर की रूपरेखा में उनको रखना पड़ता है, लेकिन अन्दर में महसूस करते हैं कि इन पवित्र आत्माओं को सीट मिलनी चाहिए। राजनेता तो कह भी देते हैं कि-हमको चीफ गेस्ट बनाते हो, यह तो आप ही बनते तो बेहतर होता। लेकिन ड्रामा में नाम उन्हों का, काम आपका हो जाता है।

जैसे सेवा में प्रत्यक्षता होती जा रही है, विधि बदलती जा रही है। ऐसे हर एक अपने में सम्पूर्णता और सम्पन्नता की प्रत्यक्षता करो। अभी इसकी आवश्यकता है और अवश्य सम्पन्न होनी ही है। कल्प-कल्प की निशानी आपकी सिद्ध करती है कि सफलता हुई ही पड़ी है। यह विजय माला क्या है? विजयी बने हैं, सफलतामूर्त बने हैं तो तो निशानी है ना! इस भावी को टाल नहीं सकते। कोई कितना भी सोचे कि अभी तो इतने तैयार नहीं हुए हैं, अभी तो खिट-खिट हो रही है-इसमें घबराने की जरूरत नहीं। कल्प-कल्प के सफलता की गारन्टी यह यादगार है। ‘क्या होगा’, ‘कैसे होगा’-इस क्वेश्चन-मार्क की भी आवश्यकता नहीं है। होना ही है। निश्चित है ना। निश्चित भावी को कोई हिला नहीं सकता। अगर नाव और खिवैया मजबूत हैं तो कोई भी तूफान आगे बढ़ाने का साधन बन जाता है। तूफान भी तोहफा बन जाता है। इसलिए यह बीच-बीच में बाईप्लाट्स होते रहते हैं। लेकिन अटल भावी निश्चित है। इतना निश्चय है? या थोड़ा कभी नीचे-ऊपर देखते हो तो घबरा जाते हो-पता नहीं कैसे होगा, कब होगा? क्वेश्चन-मार्क आता है? यह तूफान ही तोहफा बनेगा। समझा? इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि विजयी। सिर्फ फॉलो फादर। अच्छा!

सर्व अटल निश्चय बुद्धि विजयी आत्मायें, सदा हर खज़ाने को सफल करने वाले सफलतामूर्त आत्मायें, सदा ब्रह्मा बाप को हर कदम में सहज फॉलो करने वाले, सदा नई जीवन और नवयुग की स्मृति में रहने वाली समर्थ आत्मायें, सदा स्वयं में बाप के स्नेह की निशानियों को प्रत्यक्ष करने वाली विशेष आत्माओं को श्रेष्ठ परिवर्तन की, अव्यक्त वर्ष की मुबारक, याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

ड्रामा का दृश्य देख हर्षित हो रही हो ना। ‘‘वाह ड्रामा वाह! वाह बाबा वाह........’’-यही गीत अनादि, अविनाशी चलते रहते हैं। बच्चे बाप को प्रत्यक्ष करते हैं और बाप शक्ति सेना को प्रत्यक्ष करते हैं। अच्छी सेवा रही। नई रूपरेखा तो होनी ही है। ऐसे ही सबके मुख से ‘‘बाबा-बाबा’’ शब्द निकलता रहे। क्योंकि विश्व-पिता है। तो ब्राह्मण आत्माओं के दिल से, मुख से तो ‘बाबा’ निकलता ही है, लेकिन सर्व आत्माओं के दिल से वा मुख से ‘‘बाबा’’ निकले। तब तो समाप्ति हो ना। चाहे ‘‘अहो प्रभु’’ के रूप में निकले, चाहे ‘‘ वाह बाबा’’ के रूप में निकले। लेकिन ‘बाबा’ शब्द का परिचय मिलना तो है ही। तो अभी यही सेवा का साधन अनुभव किया कि एक माइक कितनी सेवा कर सकता है। सन्देश देने का कार्य तो हो ही जाता है ना। तो अभी माइक तैयार करने हैं। यह (राजस्थान के राज्यपाल डॉ.एम.चन्ना रेड्डी) सैम्पल है। फिर भी माइक तैयार करने में भारत ने नम्बर तो ले ही लिया। ऐसे तैयार करना है अभी! राजस्थान का माइक आबू ने तैयार किया है, राजस्थान ने नहीं। तीर तो आबू से लगा ना। अच्छा!

अव्यक्त-बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

महावीर वह जिसके स्वप्न में भी दु:ख की लहर न आवे

सभी अपने को महावीर अनुभव करते हो? महावीर अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान। जो महावीर आत्मा है उसके लिए सर्व शक्तियाँ सदा सहयोगी हैं। ऐसे नहीं कि कोई शक्ति सहयोगी हो और कोई शक्ति समय पर धोखा देने वाली हो! हर शक्ति आर्डर पर चलने वाली हो। जिस समय जो शक्ति चाहिए वो सहयोगी बनती है या टाइम निकल जाता है, पीछे शक्ति काम करती है? आर्डर किया और हुआ। ये सोचना वा कहना न पड़े कि-करना नहीं चाहिए था लेकिन कर लिया, बोलना नहीं चाहिए लेकिन बोल लिया। इससे सिद्ध है कि शक्ति समय पर सहयोगी नहीं होती। सुनना नहीं चाहिए लेकिन सुन लिया, तो कान कर्मेन्द्रिय अपने वश में नहीं हुई ना! अगर सुनने नहीं चाहते और सुन लिया तो कान ने धोखा दे दिया। अपनी कर्मेन्द्रियां अगर समय पर धोखा दे दें तो उसको राजा कैसे कहेंगे?

राजयोगी का अर्थ ही है हर कर्मेन्द्रिय ऑर्डर पर चले। जो चाहे, जब चाहे, जैसा चाहिए-सर्व कर्मेन्द्रियां वैसा ही करें। महावीर कभी भी यह बहाना नहीं बना सकता कि समय ऐसा था, सरकमस्टांश ऐसे थे, समस्या ऐसी थी। नहीं। समस्या का काम है आना और महावीर का काम है समस्या का समाधान करना, न कि हार खाना। तो अपने आपको परीक्षा के समय चेक करो। ऐसे नहीं-परीक्षा तो आई नहीं, मैं ठीक हूँ! पास तो पेपर के टाइम होना पड़ता है! या पेपर हुआ ही नहीं और मैं पास हो गया? तो सदा निर्भय होकर विजयी बनना। कहना नहीं है, करना है! छोटी-मोटी बात में कमजोर नहीं होना है। जो महावीर विजयी आत्मा होते हैं वो सदा हर कदम में तन से, मन से खुश रहते हैं। उदास नहीं रहते, चिंता में नहीं आते। सदा खुश और बेफिक्र होंगे। महावीर आत्मा के पास दु:ख की लहर स्वप्न में भी नहीं आ सकती। क्योंकि सुख के सागर के बच्चे बन गये। तो कहाँ सुख का सागर और कहाँ दु:ख की लहर! स्वप्न भी परिवर्तन हो जाते हैं। नया जन्म हुआ तो स्वप्न भी नये आयेंगे ना! संकल्प भी नये, जीवन भी नई।

जब बाप के बन गये तो जैसा बाप वैसे बच्चे। बाप सागर और बच्चे खाली हों-यह हो सकता है? सागर का अर्थ है सदा भरपूर। सागर के बच्चे और सुख से खाली हो जाए-कौन मानेगा! सागर कभी सूख नहीं सकता। कितना भी सुखाते रहें लेकिन सागर समाप्त हो सकता है? तो सदा बाप की विशेषताओं को याद रखो-बाप क्या और मैं क्या? कभी मन में भी रोना न आये। दु:ख की निशानी है-रोना और खुशी की निशानी है-नाचना, गाना। अगर मन में भी रोना होता है तो समझो दु:ख की लहर है। सुख के सागर के बच्चे हो तो दु:ख कहाँ से आया? ऐसा अलबेलापन नहीं रखना-हो जायेगा, अन्त में ठीक हो जायेंगे। नहीं। धोखा खा लेंगे। तो सदा सुख के झूले में झूलते रहो। इसको कहा जाता है महावीर।

ग्रुप नं. 2

फरिश्ता बनना अर्थात् कर्म करते भी कर्म के बंधन से मुक्त होना

सभी अपने को डबल लाइट अर्थात् फरिश्ता समझते हो? फरिश्ते की विशेष निशानी है-फरिश्ता अर्थात् न्यारा और बाप का प्यारा, पुरानी दुनिया और पुरानी देह से लगाव का रिश्ता नहीं। देह से आत्मा का रिश्ता तो है, लेकिन लगाव का संबंध नहीं। एक है ‘संबंध’ और दूसरा है ‘बंधन’। एक है कर्म-बन्धन और दूसरा है कर्म-सम्बन्ध। तो संबंध तो रहना ही है। जब तक कर्मेन्द्रियां हैं तो कर्म का संबंध तो रहेगा लेकिन बंधन नहीं हो। बंधन की निशानी है-जिसके बंधन में जो रहता है उसके वश रहता है। जो संबंध में रहता है वह स्वतन्त्र रहता है, वश नहीं होता। कर्मेन्द्रियों से कर्म के संबंध में आना अलग बात है लेकिन कर्मबन्धन में नहीं आना। फरिश्ता अर्थात् कर्म करते भी कर्म के बंधन से मुक्त। ऐसे नहीं कि आज आंख कहे कि यह करना ही है, देखना ही है-तो वश होकर के देख लें। जैसे कोई जेल में बंधन में होता है, तो जेलर जैसे चाहे उसको बिठायेगा, चलायेगा, खिलायेगा। तो बंधन में होगा ना! वो चाहे मैं जेल से चला जाऊं, तो जा सकता है? बंधन है ना। ऐसे पुराने शरीर का बंधन न हो, सिर्फ सेवा प्रति संबंध हो। ऐसी अवस्था है? या कभी बंधन, कभी संबंध? बंधन बार-बार नीचे ले आयेगा। तो फरिश्ता अर्थात् बंधनमुक्त। ऐसे नहीं-कोशिश करेंगे। ‘कोशिश’ शब्द ही सिद्ध करता है कि पुरानी दुनिया की कशिश है। ‘कोशिश’ शब्द नहीं। करना ही है, होना ही है। ‘है’-’है’...... उड़ा देगा, ‘गे’-’गे’...... नीचे ले आयेगा। तो ‘कोशिश’ शब्द समाप्त करो। फरिश्ता अर्थात् जीवन्मुक्त, जीवन-बंधन नहीं। न देह का बंधन, न देह के संबंध का बंधन, न देह के पदार्थों का बंधन। ऐसे जीवन्मुक्त हो? अव्यक्त वर्ष का अर्थ ही है फरिश्ता स्थिति में स्थित रहना।

चेक करो कि कौनसा लगाव नीचे ले आता है? अपनी देह का लगाव खत्म किया तो संबंध और पदार्थ आपे ही खत्म हो जायेंगे। अपनी देह का लगाव अगर है तो संबंध और पदार्थ का लगाव भी अवश्य ही खींचेगा। इसलिए पहला पाठ पढ़ाते हो कि-देह-भान को छोड़ो, तुम देह नहीं आत्मा हो। तो यह पाठ पहले अपने को पढ़ाया है? देह-भान को छोड़ने का सहज ते सहज तरीका क्या है? चलो, आत्मा बिन्दी याद नहीं आती, खिसक जाती है। लेकिन यह तो वायदा है कि तन भी तेरा, मन भी तेरा, धन भी तेरा.........। जब देह मेरी है ही नहीं तो लगाव किससे? जब मेरा है ही नहीं तो ममता कहाँ से आई? मेरे में ममता होती है! जब मैंने दे दिया तो लगाव खत्म हुआ। इस एक बात से ही सब लगाव सहज खत्म हो जायेंगे। अभी यह देह बाप की अमानत है सेवा के लिए। तो सदा फरिश्ता बनने के लिए पहले यह प्रैक्टिकल अभ्यास करो कि सेवा अर्थ है, अमानत है, मैं ट्रस्टी हूँ। ट्रस्टी अगर ट्रस्ट की चीज में ट्रस्ट नहीं करे तो उसको क्या कहा जायेगा? इस बात को पक्का करो। फिर देखो, फरिश्ता बनना कितना सहज लगता है! ‘मेरा एक बाबा’; और मेरा सब-कुछ इस ‘एक मेरे’ में समा गया। सभी समेटने और समाने में होशियार हो ना! वो मेरा-मेरा है फँसाने वाला और यह एक मेरा है छुड़ाने वाला। ‘एक मेरा’ कहा तो सब छूटा। अच्छा!

दिल्ली वालों ने कौनसा माइक तैयार किया है? दिल्ली में माइक तो बहुत हैं ना! जितने दिल्ली में माइक हैं उतने कहाँ भी नहीं हैं। आबू ने माइक तैयार करके दिखाया है। लेकिन दिल्ली वालों ने नहीं किया है। तो फॉलो हेड-क्वार्टर (मुख्यालय)। माइक से जो सेवा होती है और आप जो सेवा करेंगे-कितना फर्क है! आप खुद अपना परिचय दो और दूसरा आपका परिचय दे, तो प्रभाव किसका पड़ेगा? तो माइक का काम है आपका परिचय देना! इसका प्रभाव तो पड़ता है ना। चाहे मानें, चाहे नहीं मानें लेकिन यह तो समझते हैं कि कुछ है..। पहले यह तीर लगता है, फिर कुछ के बाद सब कुछ होता है। तो पहले तीर लगाओ। माइक तैयार करो। क्योंकि दिल्ली का जो माइक निकलेगा उसका आवाज और भी बुलन्द होगा। दिल्ली का माइक और पावरफुल होगा जो वर्ल्ड में आवाज फैला सकेगा। इस वर्ष ही तैयार करेंगे या दूसरे वर्ष? दिल्ली की धरनी तो देव आत्माओं का आह्वान कर रही है। दिल्ली की धरनी पर ही देवात्मायें आयेंगी। तो दिल्ली वालों को सेवा भी ऐसी करनी है। अच्छा! हिम्मत रखने वालों को मदद मिलती है।

ग्रुप नं. 3

विश्व-राज्य के तख्तनशीन बनने का आधार है-अकालतख्तनशीन बनना

अपने को तख्तनशीन श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? आत्मा सदा किस तख्त पर विराजमान है, जानते हो? इसको कौनसा तख्त कहते हैं? अकाल है ना। आत्मा अकाल है, इसलिए उसके तख्त का नाम भी अकालतख्त है। आत्मा शरीर में सदा भृकुटि के बीच अकालतख्तनशीन है। तो तख्त नशीन जो होता है उसे राजा कहा जाता है। तख्त पर तो राजा ही बैठेगा ना। तो आप आत्मा भी अकालतख्तनशीन राजा हो। और अकालतख्तनशीन आत्माए बाप के दिल का तख्त और विश्व के राज्य का तख्त भी प्राप्त करती हैं। तो तीनों ही तख्त कायम हैं? तख्त पर बैठना आता है? या घड़ी-घड़ी नीचे आ जाते हो? जो पहले अकालतख्तनशीन हो सकते हैं वही बाप के दिलतख्तनशीन हो सकते हैं और जो दिलतख्तनशीन हैं वही विश्व के राज्य के तख्तनशीन हो सकते हैं। तो पहला आधार है-अकालतख्त। स्वराज्य है तो विश्व-राज्य है। जिसको स्वराज्य करना नहीं आता वह विश्व का राज्य नहीं कर सकता। तो स्वराज्य का तख्त है यह भृकुटि-अकालतख्त। बाप और बच्चे के सम्बन्ध का तख्त है बाप के दिल का तख्त। इन दो तख्त के आधार पर विश्व के राज्य का तख्त। तो पहले फाउन्डेशन क्या हुआ? अकालतख्त।

अकालतख्तनशीन आत्मा सदा नशे में रहती है। तख्त का नशा तो होगा ना। लेकिन यह रूहानी नशा है। अल्पकाल का नशा नहीं, नुकसान वाला नशा नहीं। यह रूहानी नशा हद के नशों को समाप्त कर देता है। हद के नशे तो अनेक प्रकार के हैं और रूहानी नशा एक है। मैं बाप का, बाप मेरा-यह रूहानी नशा है। बाप का बन गया-यह रूहानी नशा है। तो यह रूहानी नशा सदा रहता है? या उतरता-चढ़ता है-कभी ज्यादा चढ़ता, कभी कम चढ़ता? अगर कोई राजा हो, तख्त भी हो लेकिन तख्त का, राजाई का नशा नहीं हो तो वह राजा बिना नशे के राज्य चला सकेगा? अगर आत्मा रूहानी नशे में नहीं तो स्वराज्य कैसे कर सकेंगे? राज्य में हलचल होगी। देखो, प्रजा का प्रजा पर राज्य है तो हलचल है ना। अगर आत्मा स्वराज्य के नशे में नहीं, तो प्रजा का प्रजा पर राज्य हो जाता है। यह कर्मेन्द्रियां ही राज्य करती हैं। तो प्रजा का राज्य हुआ ना। उसका नतीजा होगा-हलचल। तो सदा तख्तनशीन आत्मा का रूहानी नशा रखो। ऐसा श्रेष्ठ बाप के दिल का तख्त सारे कल्प में नहीं मिल सकता। विश्व के राज्य का तख्त तो अनेक जन्म मिलता है लेकिन बाप के दिलतख्तनशीन सिर्फ अभी होते हैं। तो उसका फायदा लेना चाहिए ना।

जो बाप के दिलतख्तनशीन है उसके आगे कोई विघ्न, कोई समस्या नहीं आ सकती। न प्रकृति वार कर सकती, न माया वार कर सकती। दिलतख्तनशीन बनना अर्थात् सहज प्रकृतिजीत, मायाजीत बनना। तो ऐसे प्रकृतिजीत, मायाजीत बने हो? प्रकृति भी हलचल में लाती है ना। प्रकृति की हलचल ब्राह्मण आत्माओं को हिला देती है? तो हलचल नहीं होनी चाहिए ना। तख्त नशीन नहीं हैं तो हलचल में आते हैं। अगर तख्त नशीन हों तो किसकी हिम्मत नहीं हलचल में लाये। तो हलचल में आना अच्छा लगता है? अच्छा नहीं लगता है लेकिन हो जाता है। तो परवश हो गये ना। बन्धना किसी को भी अच्छा नहीं लगता है, लेकिन जब परवश हो जाता है तो बन्ध जाता है। तो परवश आत्मा हो या स्वतन्त्र आत्मा हो? मुक्त कब होंगे? जीवन-मुक्ति का मजा तो अभी है। भविष्य में जीवन-मुक्त और जीवन-बन्ध का कंट्रास्ट नहीं होगा। लेकिन इस समय तो समझते हो ना कि जीवन-बन्ध क्या है, जीवन-मुक्त क्या है। इस समय के जीवन्मुक्त का अनुभव श्रेष्ठ है। जीवन में हैं लेकिन मुक्त हैं, बन्धन में नहीं हैं। आप लोगों का स्लोगन है-मुक्ति और जीवनमुक्ति जन्मसिद्ध अधिकार है। तो अधिकार प्राप्त किया है? या जब परमधाम में जायेंगे तब ही प्राप्त करेंगे? वहाँ तो पता ही नहीं पड़ेगा-मुक्ति क्या है, जीवन-मुक्ति क्या है। इसका अनुभव तो अभी होता है। अनुभवी हो ना। सभी ने जीवन-मुक्त का अनुभव किया है या जब सतयुग में जायेंगे तब करेंगे? ब्राह्मण जीवन में जीवन-मुक्ति का अनुभव हो सकता है? (हो सकता है) तो होता है?

बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि जब आपकी रचना कमल पुष्प में यह विशेषता है कि न्यारा रह सकता है, जल में रहते जल के बन्धन से मुक्त है। तो मनुष्यात्मा रचता है और वह रचना है। तो रचना में यह विशेषता है और मास्टर रचता में नहीं? है ना। कभी भी बन्धनमुक्त के बजाए अगर बन्धनयुक्त हो जाओ, बन्धन में फंस जाओ तो अपने सामने कमल पुष्प का दृष्टान्त रखो कि जब कमल पुष्प न्यारा-प्यारा बन सकता है तो क्या मास्टर सर्वशक्तिवान नहीं बन सकता! तो सदा बन जायेंगे। थोड़ा टाइम बनते हैं, थोड़ा टाइम नहीं बनते हैं-इसमें मजा नहीं है ना। कभी बन्धन, कभी बन्धनमुक्त-यह अच्छा लगता है? तो जो अच्छी चीज नहीं लगती उसे छोड़ दिया जाता है। या थोड़ा-थोड़ा रखा जाता है? तो जीवन्मुक्त बनने की विधि क्या है? न्यारा और प्यारा बनने की विधि क्या है? तख्तनशीन बनो। सदा तख्तनशीन आत्मा बन जीवन्मुक्ति का अनुभव करते रहो। यह जीवन्मुक्ति की स्थिति बहुत प्यारी है।

सभी सदा राजी रहने वाले हो? हर बात में राजी-कोई गाली देवे तो भी राजी, कोई इन्सल्ट (अपमान) कर दे तो भी राजी! या उस समय काजी बन जाते हो? सदा खुश रहने वाले, सदा राजी रहने वाले समीप भी बनते और समान भी बनते। राजी रहना अर्थात् सर्व राज़ों को जानना। नाराज़ माना राज़ नहीं जानते तो नाराज़ रहते हैं। आप तो सब राज़ जान गये हो ना। तो राज़ को जानने वाले राजी रहेंगे ना। नाराज़ वो रहता जो राज़ को नहीं जानता। आप तो त्रिकालदर्शी, नॉलेजफुल हो गये हो ना। तो सब राज़ को जानने वाले, सदा राजी रहने वाले हैं। या प्रवृत्ति में थोड़ी खिटखिट होती है तो नाराज हो जाते हो? सदा राजी रहते हो? फलक से कहो-हाँ जी, हम नहीं रहेंगे तो कौन रहेंगे! सदैव यह स्मृति रखो कि भगवान बाप के बनने से अब राजी नहीं होंगे तो कब होंगे? अभी तो होना है ना। इसीलिए कहते ही हैं खुश-राजी। जो खुश होगा वो राजी होगा, जो राजी होगा वो खुश होगा। पूछते हैं ना एक-दो से-खुश-राजी हो? तो सदा राज़ को जानने वाले अर्थात् सदा खुश रहने वाले-खुश-राजी। ऐसे नहीं-यहाँ कहो ‘हाँ’ और वहाँ जाओ तो कहो ‘क्या करें?’

ग्रुप नं. 4

विशेषतायें बाप की देन हैं, इसलिये कभी भी मेरापन न आये

बाप द्वारा जो सर्व खज़ाने मिले हैं उन सभी खज़ानों की चाबी क्या है? कौनसी चाबी लगाने से अनुभव होता है? ‘मेरा बाबा’-यही चाबी है। ‘मेरा’ और फिर ‘बाबा’। तो जब मेरा हो गया तो जो बाप का सो आपका हो गया और ‘बाबा’ कहा अर्थात् वर्से के अधिकारी बने। खज़ाने सभी आत्माओं को प्राप्त हैं लेकिन खज़ानों का अनुभव तब कर सकते हो जब दिल से ये स्मृति में रहे कि ‘मेरा बाबा’। बाप कहते ही वर्सा याद आ जाता है।

मालिक के साथ बालक भी हो और बालक के साथ मालिक भी हो। बालक बनने से सदा बेफिक्र, सदा डबल लाइट रहते हैं और मालिक अनुभव करने से मालिकपन का रूहानी नशा रहता है। तो बालकपन का अनुभव भी आवश्यक है और मालिकपन का अनुभव भी आवश्यक है। अभी-अभी मालिक, अभी-अभी बालक-यह दोनों ही विधि आती हैं? कई ऐसी बातें वा सम्बन्ध-सम्पर्क में आने से कई समय ऐसे आते हैं जिसमें कहाँ मालिक बनना पड़ता है और कहाँ बालक बनना पड़ता है। अगर बालक बनने के बजाए उस समय मालिक बन जायें तो भी हलचल में आ जाते हैं और जिस समय मालिक बनना चाहिए उस समय बालक बन जायें तो भी हलचल। जैसा समय वैसा स्वरूप। कोई भी कार्य करते हो तो मालिक बनकर करते हो लेकिन जब कोई बड़े यह फाइनल करते हैं कि यह काम ऐसे नहीं, ऐसे हो-तो उस समय फिर बालक बन जाते हो। राय के समय मालिक और जब मैजारिटी फाइनल करते हैं तो उस समय बालक, उस समय मालिकपन का नशा नहीं-मैंने जो सोचा वो राइट है। अभी-अभी मालिक, अभी-अभी बालक। तो जैसा समय वैसे स्वरूप में स्थित रहना-यह विधि आती है? इसको कहा जाता है आलराउन्ड पार्ट बजाने वाले। रायबहादुर भी बने और ‘हाँ जी’ करने वाला भी। तो ऐसा करना आता है? क्योंकि इस ईश्वरीय मार्ग में कभी भी कोई ऐसे कह नहीं सकता कि मेरी बुद्धि का प्लैन बहुत अच्छा है, मेरी राय बहुत अच्छी है, मेरी राय क्यों नहीं मानी गई? ‘मेरी’ है? मेरी बुद्धि बहुत अच्छा काम करती है, मेरी बुद्धि को रिगार्ड नहीं दिया गया। तो ‘मेरा’ है? जो भी विशेषता है वह ‘मेरी’ है या ‘बाप’ की देन है? तो बाप की देन में मेरापन नहीं आ सकता। इसलिए सदा ही न्यारे और प्यारे रहने वाले। तो यह भी एक सीढ़ी है बालक और मालिक बनने की। यह सीढ़ी है-कभी चढ़ो, कभी उतरो। कभी बालक बन जाओ, कभी मालिक बन जाओ। इससे सदा ही हल्के रहेंगे, किसी प्रकार का बोझ नहीं।

सब प्रकार का बोझ बाप को दे दिया ना। बोझ उठाने की आदत तो नहीं है ना। बोझ उठाने की आदत होती है तो कितना भी कहो, बोझ उठायेंगे जरूर। बोझ उठाने वाले नहीं, हल्के रहने वाले। जितना हल्का उतना ऊंची स्थिति में उड़ता रहेगा। बोझ वाले की निशानी है-वह नीचे स्वत: ही आ जाता है और हल्के की निशानी है-वह स्वत: सहज ऊंचा उड़ता रहेगा। तो कौन हो? उड़ने वाले ना। जब समय ही है उड़ती कला का, तो उड़ती कला के समय उड़ने में ही प्राप्ति है। दोनों में बिज़ी रहते हो-याद में भी और सेवा में भी। दिन-रात सेवाधारी को सेवा के बिना चैन नहीं आता है। ऐसे सेवाधारी हो? या जब चांस मिलता है तब सेवा करते हो? जैसे सेवा में आगे बढ़ते हो ऐसे याद में भी सदा आगे बढ़ो। ‘याद और सेवा का बैलेन्स’ सदा आगे बढ़ाता है। बैलेन्स रखना आता है? कभी सेवा में बहुत आगे चले जाओ, कभी याद में आगे जाओ तो सेवा भूल जाओ-ऐसे नहीं। याद और सेवा - दोनों सदा साथ रहें। अच्छा!

प्रवृत्ति में रहते सभी न्यारे और प्यारे रहते हो ना। किसी भी बंधन में फँस तो नहीं जाते हो? आधा कल्प तो स्वयं को फंसाते रहे, निकलने की कोशिश करते भी फंसते रहे। अब बाप ने सब बन्धनों से न्यारा बना दिया, तो संकल्प मात्र भी किसी भी सम्बन्ध में, अपने देह में, पदार्थों में फंसना नहीं। 63 जन्म अनुभव करके देखा ना, पँसने से क्या मिला? जो-कुछ था वो गंवाया ना। तो संकल्प में भी बंधन-मुक्त। इसको कहा जाता है न्यारा और प्यारा। संकल्प में भी बंधन आकर्षित न करे। क्योंकि संकल्प में आयेगा तो संकल्प के बाद फिर कर्म में आ जाता है। तो संकल्प में ही खत्म कर दो। इसी न्यारे और प्यारे अर्थात् अव्यक्त स्थिति का विशेष अभ्यास करना है। व्यक्त भाव में आते भी, व्यक्त भाव के आकर्षण में नहीं आना। अव्यक्त का अर्थ ही है व्यक्त भाव से परे। अव्यक्त बनना आता है ना। तो अभी ‘सदा’ शब्द को अन्डरलाइन करना। सभी खुश हैं? कभी खुशी चली तो नहीं जाती? कभी कम हो जाती है? आपका खज़ाना है तो बढ़ते रहना चाहिए, कम नहीं होना चाहिए। तो खुश रहना और खुशी बाँटना। अच्छा है, सेवा भी बढ़ाते चलो और स्वयं को भी उड़ाते चलो।

ग्रुप नं. 5

गम्भीरता और हर्षितमुखता के बैलेन्स से एकरस स्थिति का अनुभव करो

सभी बाप के साथ और हाथ का अनुभव सदा करते हो? सदा साथ अर्थात् हर कदम में बाप की मदद का सहज अनुभव होता रहे। जैसे बच्चे को बाप या माँ का साथ होता है तो वो कितना सहज आगे बढ़ता रहता है! तो ऐसे साथ का अनुभव होता है? ‘सदा’ होता है या ‘कभी-कभी’ होता है? सम-टाइम (कभी-कभी) समाप्त हुआ या अभी भी सम-टाइम है? बाप का साथ सहज बनाता है और बाप का साथ नहीं है, बाप से किनारा है तो मुश्किल होता है। बाप बच्चों को इस समय साथ रहने की ऑफर करते हैं। तो जब बाप ऑफर करते हैं तो इस ऑफर को प्रैक्टिकल में लाना चाहिए ना! 63 जन्म भिन्न-भिन्न नाम-रूप में पुकारते रहे। अभी बाप मिला है तो सदा साथ का अनुभव करो।

आप सबका ब्रह्मा बाप से कितना प्यार है? ब्रह्मा बाप से प्यार है तो ब्राह्मण कल्चर से भी तो प्यार है। सबसे श्रेष्ठ दृष्टि है अनुभव की। अनुभव के नेत्र से जो देखते हैं वो कभी भी किसी के कहने से हलचल में नहीं आ सकते। देखा हुआ फिर भी सोचना पड़ेगा-पता नहीं ठीक देखा, नहीं देखा। लेकिन अनुभव की आंख से देखने, अनुभव करने वाली चीज सदा ही यथार्थ होती है। सभी अनुभव तो किया है ना। अगर एक लाख आत्माए आपको कहें कि ब्रह्मा बाप को देखा नहीं है आपने; तो क्या कहेंगे? कहेंगे-देखा है। इससे कोई आपको हटा नहीं सकता।

फॉरेन में कितनी माला तैयार की है? 108 की माला तैयार की है या 16108 की? तो डबल फॉरेनर्स की अलग 108 की माला बनेगी या मिक्स में आयेंगे? अलग तो नहीं है ना। तो सभी 108 में हो! तो इन्डिया वाले कौनसी माला में आयेंगे? (सभी एक में ही आयेंगे) हिम्मत अच्छी रखते आये हो और आगे भी हिम्मत सदा आगे बढ़ाती रहेगी। अभी कन्फ्यूज (मूंझना) होने की माया तो नहीं आती है ना। कभी-कभी कन्फ्यूज करती है? मूड चेंज तो नहीं होती? तो इस वर्ष में न कोई कन्फ्यूज होना और न कभी किसी बात से मूड चेंज करना। सदा हर कर्म में फॉलो ब्रह्मा बाप। ब्रह्मा बाप भी सदा हर्षित और गम्भीर-दोनों के बैलेन्स की एकरस स्थिति में रहे। तो फॉलो फादर। और कोई माया तो नहीं आती है ना। सदा अपने को विजयी अर्थात् मायाजीत अनुभव करते उड़ते चलो। तो सभी मायाजीत हो ना। संकल्प में भी माया नहीं आती? वेस्ट थॉट्स (व्यर्थ संकल्प) के रूप में आती है? तो मायाजीत का टाइटल मिल गया। कि लेना है? सेरीमनी हो गई है। या सेरीमनी नहीं हुई है? फरिश्ते की ड्रेस पहन ली? मिल गई? जैसे दादी को डॉक्टरेट की ड्रेस मिली है, ऐसे ही आपको भी फरिश्ते की ड्रेस मिल गई है? फिर व्यर्थ संकल्प कहाँ से आये? तो फरिश्ते को वेस्ट थॉट्स आते हैं क्या! अभी वेस्ट का नाम-निशान खत्म कर देना। बापदादा बच्चों का उमंग-उत्साह देख हर्षित होते हैं। सिर्फ ‘सदा’ शब्द को बार-बार अन्डरलाइन लगाते रहना। तो यह कौनसा ग्रुप है? फरिश्ता ग्रुप। डबल फॉरेनर्स ग्रुप नहीं, फरिश्ता ग्रुप। अच्छा! जैसे संकल्प किया है वैसे सदा स्वयं भी फरिश्ता बन उड़ते रहना और औरों को भी फरिश्ता बनाते उड़ते रहना।

ग्रुप नं. 6

बेफिक्र रहने के लिये बुद्धि को स्वच्छ बनाओ

सदा अपने को बेफिक्र बादशाह अनुभव करते हो? क्योंकि फिक्र तब होता है जब मेरापन है। जब सब बाप के हवाले कर दिया तो बेफिक्र हो गये ना! सब-कुछ बाप को देकर बेफिक्र बादशाह बन गये। न अपनी देह है, न देह के संबंध हैं। तो बेफिक्र हो गये ना! सब प्रकार का फिक्र बाप को दे दिया। बेफिक्र बनने के कारण फिक्र खत्म हुआ और फखुर यानी नशा आ गया! क्या होगा, कैसे होगा, कल क्या होगा, परसों क्या होगा?-यह फिक्र रहता है? जब हालतें खराब होती हैं तब होता है? फिक्र रखने से जो भी अच्छा कर सकते हो वह भी नहीं कर सकेंगे। जिसको फिक्र हो जाता है उसकी बुद्धि यथार्थ निर्णय नहीं करती है। निर्णय ठीक न होने के कारण और ही मुश्किल बढ़ती जाती है। इसलिए सदैव बेफिक्र होंगे तो बुद्धि निर्णय अच्छा करेगी। निर्णय अच्छा हुआ तो सफलता हुई पड़ी है। देखो, आज कोई लखपति होता है और कल कखपति बन जाता है। कारण क्या होता है? निर्णय शक्ति राइट काम नहीं करती है-’हाँ’ के बजाए ‘ना’ कर दिया, ‘ना’ के बजाए ‘हाँ’ कर दिया; तो खत्म। निर्णय शक्ति यथार्थ काम तब करेगी जब बुद्धि खाली होगी। फिक्र से बुद्धि फ्री नहीं है तो और ही नुकसान होता है। इसलिए बेफक्र अर्थात् सदा मन और बुद्धि फ्री हो। तो ऐसे फ्री हो या कोई किचड़ा है? योग-अग्नि द्वारा जो भी किचड़ा था वह जल गया! अगर अग्नि तेज नहीं होगी तो कुछ जलेगा, कुछ रह जायेगा। योग-अग्नि द्वारा जो भी बुद्धि में किचड़ा था वो खत्म हो गया! जिसकी बुद्धि इतनी स्वच्छ होगी वही सदा बेफिक्र रह सकता है। इसीलिए सदा स्वच्छता सबको प्यारी है। कहाँ भी गन्दगी होगी तो उसे कौन पसन्द करेगा! तो किसी भी प्रकार की कमजोरी-यह गन्दगी है। तो सदैव चेक करो कि स्वच्छता है? मिक्स तो नहीं है? जरा-सा व्यर्थ संकल्प भी किचड़ा है।

सदा सवेरे अपनी बुद्धि को बिजी रखने का टाइम-टेबल बनाओ। जैसे अपनी स्थूल दिनचर्या बनाते हो, ऐसे बुद्धि का टाइम-टेबल बनाओ कि इस समय बुद्धि में इस समर्थ संकल्प से व्यर्थ को खत्म करें। जो बिजी होता है उसके पास कोई भी आता नहीं है, चला जाता है। अगर फ्री होगा तो सभी आकर बैठ जायेंगे। तो बुद्धि को बिजी रखने की विधि सदैव अपनाते रहो। बड़े आदमी जो होते हैं उनका एक-एक सेकेण्ड फिक्स होता है। तो आप कितने बड़े हो! तो अपने हर समय की दिनचर्या सेट करो। तो व्यर्थ को समाप्त करने का सहज साधन है-सदा बिजी रहना। जो बिजी रहता है वह व्यर्थ संकल्पों से मुक्त होने के कारण बेफिक्र और डबल लाइट रहता है! तो डबल लाइट हो ना! दृढ़ता है तो सफल हो जायेंगे। इस सारे वर्ष में चेक करना कि सारे वर्ष बेफिक्र रहे? किसी भी प्रकार का एक सेकेण्ड भी फिक्र नहीं हो। अच्छा!

अमृतवेले 2.30 बजे नये वर्ष की बधाई देते हुए बापदादा बोले-

चारों ओर के अति स्नेही, सदा समीप रहने वाले सर्व बच्चों को नये वर्ष की हर रोज़ की पद्म गुणा मुबारक। क्योंकि वर्ष का हर दिन कोई न कोई नवीनता ले आता है। सभी ब्राह्मण आत्माओं को हर समय कुछ न कुछ नवीनता अपने में और सेवा में अवश्य लानी है। तो इस वर्ष यह चेक करना कि हर दिन में स्व-उन्नति के प्रति वा सेवा के प्रति क्या नवीनता लाई है? सदा अपनी श्रेष्ठ स्टेज और पुरूषार्थ की स्पीड को आगे बढ़ाते रहना। आप सभी ब्राह्मण आत्माओं का आगे बढ़ना अर्थात् विश्व-परिवर्तन के कार्य में आगे बढ़ने की निशानी है। तो सदा हर समय नवीनता की मुबारक लेते रहना और औरों को भी नये उमंग-उत्साह से आगे बढ़ाते रहना। सदा उमंग-उत्साह से हर दिन उत्सव मनाते रहना। तो सदा उत्सव में खुशी में नाचते रहना और बाप के गुणों के गीत गाते रहना। मधुरता की मिठाई से स्वयं का मुख मीठा करते रहना और मधुर बोल, मधुर संस्कार, मधुर स्वभाव द्वारा दूसरों का भी मुख मीठा कराते रहना। ऐसे नये वर्ष की पद्म गुणा मुबारक हो, मुबारक हो, मुबारक हो। अच्छा!

जिन्होंने भी याद-प्यार भेजा है, कार्ड भेजे हैं, गिफ्ट भेजी हैं उन सबको हर देश और हर आत्मा को नाम सहित विशेष मुबारक और याद, प्यार। अच्छा!